सुरेश शर्मा
केन्द्र को भारी बहुमत के बाद राज्यों में हार का मतलब
देश की मानी हुई पत्रिका ने 2017 और 2019 की अवधि में भाजपा और उनके सहयोगी दलों की सरकार के क्षेत्रफल को दो अलग-अलग चित्रों के माध्यम से दिखाया है। 2017 में भाजपा का देश के 71 प्रतिशत भू-भाग पर शासन था जबकि आज वह घटकर 40 प्रतिशत के करीब आ गया है। इसकी चिन्ता लगातार मीडिया के माध्यम से आ रही है। दो विधायकों पर भी रातों रात सरकार बनाने की क्षमता वाला भाजपा का नेतृत्व जब 109 विधायकों पर सरकार बनाने की स्थिति को टाल देगा तब भू-भाग का प्रतिशत कम होगा ही। यह संभवतया नेतृत्व ने भी समझा होगा। यह भी हो सकता है कि दूसरी बार केन्द्र में सरकार बनने के बाद मोदी-शाह की जोड़ जुगाडबाजी से सरकार बनाने के फार्मूले को त्याग कर कोई नया प्रयोग करने की मंशा रखती हो। जो भी हो लेकिन एक तर्क सबसे अधिक प्रभावशाली दिखता है वह यह है कि केन्द्रीय नेतत्व की यह जोड़ी इतनी बड़ी हो गई है कि राज्यों में प्रभावशाली नेताओं के साथ इनका तालमेल हो ही नहीं पा रहा है। यही कारण है कि राज्यों में सरकारों का ग्राफ कम होता जा रहा है और गठबंधन के साथी साथ छोड़ रहे हैं। लोकसभा चुनाव में जिस प्रकार की उदारता गठबंधन के साथियों के प्रति दिखाई गई थी उस उदारता का अभाव विधानसभाओं के चुनाव के समय दिखाई नहीं दे रहा है। जनसंघ से लगाकर भाजपा तक संगठन निर्माण का मूल चरित्र नेतृत्व की क्षमता तैयार करना रहा है जबकि एक व्यक्ति को दशकों तक मुखिया बनाकर रखना नेतृत्व निर्माण में टहराव का संकेत बताता है कि सामुहिक नेतृत्व वाली भाजपा व्यक्तिवादी हो गई है। अब इसमें सुधार के लिए भी एक बार फिर नीचे से शुरू करने के बराबर ही होगा।
ग्यारह महीने पहले जब तीन बड़े राज्यों की सरकार भाजपा से छटक कर कांग्रेस के खाते में गई थीं तब से ही यह धारणा बनना शुरू हो गई थी कि कांग्रेस मुक्त भारत का नारा अब अपना प्रभाव खो रहा है। जब मध्यप्रदेश में भाजपा के पास 109 विधायक और कांग्रेस के पास बहुमत से कम 114 विधायक आये तब भी यह अनु मान लगाया गया था कि सरकार भाजपा की बनायेगी। क्योंकि उसके पास 2 विधायकों के बाद भी सरकार बनाने का अनुभव है। लेकिन सहजता से कमलनाथ को सरकार दे दी गई। इसका मतलब यह निकाला गया था कि मोदी-शाह की जोड़ी शिवराज को फिर से सरकार देने की मनस्थिति में नहीं है। लेकिन शिवराज के सरकार में रहते कोई दूसरे नेता का कद तैयार करने का प्रयास नहीं किया गया। इससे आई शून्यता ने कमलनाथ की सरकार भी बनवा दी और उसे चलने का मौका भी दे दिया। मध्यप्रदेश सहित देश के उन राज्यों में जनसंघ भाजपा की राजनीति को देखा जाये तो पूर्व मुख्यमंत्रियों की फौज तैयार की जाती थी ताकि उन्हें संगठन विस्तार के लिए सुविधा मिल सके। लेकिन मोदी, शिवराज और रमन लगातार मुख्यमंत्री होने का रिकार्ड बनाते रहे और दूसरे वर्ग को नेतृत्व बूढ़ा होता चला गया।
केन्द्रीय नेतृत्व में जोडिय़ा भाजपा की पहचान रही हैं। लेकिन जोडिय़ों ने अगली पीढ़ी को तैयार करने की रणनीति पर काम किया है। प्रतिभाओं को डसने का कभी प्रयास नहीं किया। जब मोदी को प्रधानमंत्री का प्रत्याशी बनाया जा रहा था तब विवाद में ही सही आडवानी ने शिवराज को भी प्रधानमंत्री का सक्षम नेता बताया था। आज मोदी और अमित शाह में यह गुण कम ही दिखाई दे रहा है कि वे प्रदेशों में नेताओं की बड़ी फौज को तैयार करें। इसी अभाव का प्रभाव है कि केन्द्र सरकार के लिए 300 से अधिक सांसद जिताने के बाद भी विधानसभाओं में बहुमत के लाले पड़ रहे हैं। हरियाणा का उदाहरण खुली आंखों से दिखाई दे रहा है। राष्ट्रीय भावना और वैश्विक कूटनीति के कारण वोटों के झुकाव को रोका नहीं जा सकता है। ईमानदारी और पारदर्शिता का प्रभाव भी स्थानीय मुद्दों और रोजगार के सामने असरकारी नहीं हो सकता है। वहां मतदान से पांच दिन पहले तक अपने दम पर सरकार बनाने वाली भाजपा को बहुमत के लाले पड़ गये। कारण एक ही था कि प्रदेश का नेता और प्रदेश के मुद्दे भाजपा की फहरिस्त में नहीं थे।
जब से भाजपा में नरेन्द्र मोदी का नेतृत्व आया है तब से भाजपा ने लम्बी छलांग लगाई है। जैसा की भारत के चित्र में भगवा करके राजग-भाजपा सरकार का गठबंधन दिखाया गया है उसमें वह देश के 71 प्रतिशत भू-भाग को दिखा रहा है। नरेन्द्र मोदी का कद इतना बड़ा हो गया है कि उन्हें चुनौति देने वाला कोई भी नेता भाजपा में नहीं है। अमित शाह जैसा विश्वसनीय साथी उनके साथ है तब मोदी का महिमामंडन करने की कोई कमी रहती भी नहीं है। इसका मतलब यह हुआ कि किसी भी राज्य से मोदी के नेतृत्व को चुनौती देने की संभावना एक दशक से अधिक समय तक दिखाई नहीं दे रही है। क्षेत्रीय लोकप्रियता में शिवराज सिंह चौहान के मुकाबले कोई और नेता दिखाई भी नहीं दे रहा है। शिवराज ही ऐसा नेता है जिसकी सरकार खोने के बाद भी मुख्यमंत्री से अधिक लोकप्रियता है। इसके बाद भी मोदी को इसकी चिन्ता नहीं करना चाहिए क्योंकि शिवराज की राजनीति राष्ट्रीय स्तर पर मारक नहीं होकर प्रदेश की राजनीति में अपना स्थान बरकरार रखने की है। इसके बाद देश की राजनीतिक क्षमताओं को संभालने वाले नेताओं की लम्बी फहरिस्त भाजपा के पास रहेगी तो यह धरोहर ही कहलायेगी। लेकिन राज्यों में सीमटने का सबसे बड़ा आधार यह है कि पहले से स्थापित नेताओं के आभामंडल का ध्वस्त करने की योजना पर काम किया जा रहा है। दूसरी उससे भ्साी बड़ी समस्या यह है कि राज्यों में नया नेतृत्व तैयार नहीं किया जा रहा है और नहीं होने दिया जा रहा है। केन्द्र और राज्यों में नेतृत्व का द्वंद्व भारत के मानचित्र से भगवा रंग को कम करता जा रहा है।
मोदी सरकार को यह भी समझना होगा कि वैश्विक कूटनीति में उसने महारथ हासिल कर ली। राममंदिर का मुद्दा भी सुलझा लिया, धारा 370 जैसी जटिल समस्या का हल भी बिना रक्तपात के करवा लिया। सैन्य शक्ति को समृद्ध बनाने की दिशा में कई कदम चल लिये। पाकिस्तान को उसके घर में बंद करके भारत का गौरव बढ़ा लिया। चीन को चुपके से जवाब देकर यह सिद्ध कर दिया कि बिना युद्ध के भी ताकतवर विरोधी को हराया जा सकता है। लेकिन यह आवरण को ताकतवर करने वाले विषय हैं। रोजगार की तलाश को खत्म करने की दिशा में सार्थक पहल तो हुई है लेकिन वह परिणाम तक नहीं पहुंच पा रही है जिससे राज्यों में प्रभाव नहीं बन पा रहा है। अर्थव्यवस्था को सुधारने के लिए अधिक शिंकजा कसना व्यवस्था को चरमराने तक नही पहुंच जाये इसकी चिन्ता भी करना होगी। बचत आधारित अर्थव्यवस्था को कर्ज पर आधारित बनाने का प्रतिशत कितना रखना चाहिए और कितने की गति से बढऩा चाहिए यह भी तय करना होगा। राजस्व प्राप्तियों का जेब के साथ सन्तुलन बना रहेगा तो बाजार में खरीदी का सन्तुलन भी बना रहेगा। यदि ऐसा करने में परेशानी आयेगी तो राज्यों की सरकारों के लिए मतदान का संकट पैदा होगा ही। इसलिए केन्द्र में अकूत समर्थन मिलने के बाद राज्यों में सरकार बनाने के लाले पडऩे की चिन्ता को दबाने की बजाये समझने की जरूरत है। कुछ लोग अनुमान लगाने लग गये हैं कि मोदी सरकार के सर्वोच्च शिखर पर पहुंचने के बाद ठहरने का संकट पैदा होने लग गया है लेकिन अभी ऐसे किसी भी अनुमान की आहट देखना जल्दबाजी होगी। क्योंकि मोदी-शाह का नेतृत्व प्रदेशों में नेतृत्व को ताकतवर करने और अर्थव्यवस्था को रोजगारोंन्मुखी बनाने की दिशा में काम करने लग जायेगा तो वह ठहराव अधिक समय को हो सकता है। विषयों और घटनाओं को सलीके से पहुंचाने की टीम की समीक्षा के साथ संरक्षण की मानसिकता भी पनपने की जरूरत दिख रही है।
संवाद इंडिया