'बाजार' में थोड़े ही मिलती है मुख्यमंत्री की 'कुर्सी'


सुरेश शर्मा (लीक से हटकर )


भोपाल। शिवसेना की ओर से मुख्यमंत्री की कुर्सी पाने के लिए जिस प्रकार के प्रयास किये जा रहे हैं उसकी तारीफ करने वालों की संख्या नगण्य है। कुछ महत्वपूर्ण बातें सामने आ रही हैं। इलेक्ट्रानिक मीडिया बार-बार उन चित्रों को दिखा रहा है जब देश के पूर्व प्रधानमंत्री भारत रत्न अटल बिहारी वाजपेयी शिवसेना सुप्रीमों बाला साहबठाकरे से उनके निवास पर मिलने जाते थे। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की कमर सीधी नहीं हो पाती थी। बाकी नेताओं की तो हिम्मत भी नहीं होती थी कि बाला साहब ठाकरे से बात कर सके। तब मुख्यमंत्री की कुर्सी शिवसेना को ही मिलती थी। कई बार यह तथ्य भी सामने आता है कि प्रमोद महाजन ने शिवसेना को महाराष्ट्र में बड़ा भाई माना गया था और मुख्यमंत्री की कुर्सी उन्हीं के खाते में दी गई थी। लेकिन 2014 के विधानसभा चुनाव में शिवसेना और भाजपा ने अलग-अलग चुनाव लड़ा और भाजपा ने सेना से अधिक सीटें जीतकर अपनी पोजिशन बड़े भाई की बना ली। शिवसेना वापस बड़ा भाई बनने की फिराक में है लेकिन सदस्यों की संख्या आधी के आसपास ही है। तब यह राजनीति में कैसे संभव हो पायेगी। अब शिवसेना बाजार में खड़ी हो गई है कि मुख्यमंत्री का पद खरीदना है आओ साथ आओ किसी भी प्रकार से हमें मुख्यमंत्री का पद दे दो। कोई साथ नहीं आ रहा है।


शिवसेना की स्थिति ऐसी हो गई है कि सड़क-सड़क होटल-होटल भटक रहे हैं। जो कभी मातोश्री से बाहर नहीं निकलते थे। उनसे मिलने के लिए जिसको भी मिलना होता था वहीं जाना होता था। आज कंघी करने की स्थिति भी नहीं बची। रात के कपड़े पहनकर प्रेस से बात करने चले आते हैं। कारण यह है कि मुख्यमंत्री की कुर्सी चाहिए। भाजपा और शिवसेना को जनता ने जनादेश दिया था। उसे स्वीकार करने की बजाये कुर्सी मोह और पुत्र मोह ने शिवसेना को मातोश्री से बाहर निकाल दिया। हालत यह है कि उद्धव ठाकरे को अहमद पटेल से मिलने के लिए होटल में जाना पड़ रहा है। सोनिया गांधी से फोन पर बात करने के बाद भी कोई जवाब नहीं मिल रहा है। शरद पवार के कहने पर राजग और मंत्री पद छोडऩे के बाद भी समर्थन की चि_ी नहीं मिलती है। आखिर ऐसी हालत के लिए उद्धव जिम्मेदार हैं या बड़बोले संजय राउत। जो भी हो देश में शिवसेना ने अपनी प्रतिष्ठा का ग्राफ तेजी से गिराया है। क्या शिवसेना भाजपा के साथ वापस आकर रोज-रोज की किरकिरी से अचने का प्रयास करेगी?


मुख्यमंत्री की कुर्सी दहेज में नहीं मिलती है। उसके लिए विधायकों की संख्या चाहिए होती है। शिवसेना बड़ा भाई इसलिए होती थी क्योंकि उसके विधायकों की संख्या भाजपा से अधिक हुआ करती थी। आज वह जिस गठबंधन में जाने का प्रयास कर रही है वहां एनसीपी से महज दो विधायक ही ज्यादा हैं। वे दो दल जिनको सेना फूटी आंख नहीं सुहाती थी। भाजपा को रोकने के लिए इतना बड़ा समझौता संभव है? यह शिवसेना को समझना होगा। मुख्यमंत्री की कुर्सी बाजार में नहीं मिलती है कि उसे खरीदो और घर ले जाओ। मुख्यमंत्री की कुर्सी मर्यादा और विचार-सिद्धान्त छोडऩे से भी नहीं मिलती है। फिर जिसके साथ संजय हो जय उसके साथ कहां होती है?